Friday 25 May, 2007

फैज़ की ज़बानी ....

फैज़ अहमद फैज़ की इस ग़ज़ल को पहली बार हिंदु कालेज के जय सिंह लॉन में बैठकर सूना था..... कॉलेज के शुरूआती दिन थे और इस बात से हम अनजान थे कि दुनिया अच्छाई और बुराई के अलावा गुटों , पार्टियों और विचारधाराओं में भी बंटी है...... आज अचानक ये ग़ज़ल मिल गयी और लगा कि इसे यहाँ जगह देना ज़रूरी है ..... कोशिश रहेगी कि कालेज के उस दौर की ज़िंदा निशानियाँ एक एक कर यहाँ जमा हो जाएँ......

जिन्होंने इस ग़ज़ल को या फैज़ की शाएय्री को नहीं सूना है उनके लिए इस से जुडा एक छोटा सा किस्सा..... इस ग़ज़ल को पकिस्तान की मशहूर गायीका इकबाल बानो ने जब ५०००० लोगों के सामने पेश किया तो ये वो समय था जब फैज़ पकिस्तान कि एक जेल में सरकार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने कि सज़ा काट रहे थे ..... लोगों ने जब पहली बार इस ग़ज़ल को सूना तो तालियों की गड़गड़ाहट से हौल गूँज उठा..... ये ग़ज़ल उन लोगों के नाम जिन्होंने अपनी कलम के सामने बंदूकों को झुका दिया ......

ग़ज़ल सुन ने के लिए click करें ......

हम देखेंगे
लाजिम
है कि हम भी देखेंगे
वो
दिन कि जिस का वादाहै
जो लूह-ए-अजल पे लिखा हैं


हम भी देखेंगे
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कूच-ए-गिरन
रूई कि तरह उड़ जाएँगे
हम महकमों के पाओ तले
ये धरती धर धर धड़केगी

और अहल-ए-हुकुम के सिर
जब बिजली कर कर kadkegee

हम भी देखेंगे

जब अर्ज़-ए-खुदा के काबे से
सब बुत उठ्वाए जाएंगे
हम अहल-ए-साफा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बैठाये जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराये जाएंगे

हम भी देखेंगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र है नाज़िर भी
उठेगा अनल हक का नारा
जो मैं भी हूँ तुम भी हो
और राज़ करेगी खल्क-ए-खुदा
जो मैं भी हूँ तुम भी हो

हम देखेंगे

लाजिम है हम भी देखेंगे
हम देखेंगे ...!

1 comment:

Vikash said...

"तूने देखी है वो पेशानी, वो रूख़्सार, वो होंट
ज़िन्दगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आंखे
तुझ को मालूम है क्यों उम्र गंवा दी हमने"

फैज़ तो बस फैज़ ही हैं :)